शेख़ वली मोहम्मदयानी कि ‘नज़ीर अकबराबादी’ उनकी मृत्यु 26 अगस्त को हुई थी (कहीं-कहीं 16 अगस्त की तारीख भी लिखी गई है) 1830 में हुई थी, लेकिन उनका जन्म (1735) की अभी भी कोई निश्चित तारीख सामने नहीं आई है। सैकड़ों वर्ष छल से लाखों की संख्या में देखने वाले नजीर अकबराबादी जब तक ब्रज के लोक जीवन में छुपे मिलते रहे, जन-जन के कंठों से फूटते रहे, मेले तमाशों में गाए जाते रहे और विलक्षण मित्रता से अमृत, उन्माद की शिंगारी को जन्म लेते रहे ठंडा रहा. उनके काव्य में इस कथन को लोगों के बीच साझा किया गया था, कि जनकवि की प्रतिष्ठा हासिल हुई थी। दो सौ साल बाद जब समय इतना बदल गया, ऐसे में नज़ीर की कमी को आज शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है, क्योंकि मिट्टी से बनी मिट्टी से लेकर सोंधी महक-सी तक उनकी रचनाएँ आज भी अपनी जादुई प्रभाव वाली नहीं हैं।
नज़ीर अकबराबादी को शब्दों के जादूगर और आवाज़ के बादशाह के रूप में आज भी याद किया जाता है। कहा जाता है, वे बहुत अच्छे, सहज और सरल इंसान थे। उनकी रचनाएँ पढ़ने में आज भी इतनी आसान हैं, कि भावों को मुखर अभिव्यंजना में पूरी तरह से समर्थित हैं। उन्हें बोले हुए भाव इस तरह जागते हैं, मनो भाषा ने आंखों के सामने के चित्र खींचे हुए हैं। वह अपने स्कूल में ही मिथकों के नायकों की तरह प्रसिद्ध हो गये थे। साहित्य के इतिहास में उनके काव्य को कुछ हद तक बाद में मिला, लेकिन वह बहुत पहले ही नज़ीर की मैजिक म्यूज़िक का संगीत आगरा के उद्यम, आर्किटेक्चर और स्ट्रीट-कूंचों में गूंजने लगा था। उनके छोटों को लोकगीत और ईश्वरवंदना की तरह की पार्टियाँ, घर, उत्सव और समारोहों में जाना और मनाया जाता रहा है।
नज़ीर व्युत्पत्ति: ऐसे इकलौते रचनाकार रह रहे हैं,युगीन कथा का उत्तर अपने सामान्य माध्यम से बहुत अलग तरीके से दिया और अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर साहित्य की दुनिया से जुड़े और टिके रहे। आम लोगों के बीच उनके बाजारों की पैठ और जन-स्वकृति ने आलोचकों को इस कदर घेर लिया कि उन्हें, नजीर को अरब-मिश्रित स्टेक बोली का अन्यतम और विशिष्ट कवि घोषित करना पड़ा। नज़ीर ने लोगों के बारे में लोगों के बारे में लिखा और कहा, जिसके लिए उन्होंने संप्रदाय-सीमित संस्था या किसी भी प्रकार की रहस्यवादिता का सहारा नहीं लिया।
नज़ीर अकबराबादी के विषय में विद्वान, विद्वान या धार्मिक कथाएँ जैसे उनके समय के युग-जीवन को जानना और महसूस करना। उन्हें आगरा और ब्रज क्षेत्र के संपूर्ण उत्सव-त्योहार, मेले और खेल बहुत पसंद हैं, जिसमें वे अपनी कविताएँ, रचनाएँ भी सभी विषयों पर रखते हैं। उनके लिए यह मतलब नहीं था, वह कहते हैं या दीपावली, वे बस वही लिखते हैं जो उनके मन को लगता है। उनकी कविताओं में जीवन की वास्तविकताएं और सुख का अनुभव आज भी उल्लेखित किया गया है। कहा जाता है, कि उन दिनों उनकी रचनाओं में आम लोगों के लिए संजीवनी शक्ति का काम होता था।
अपने मिज़ाज़ से वैसे तो नज़ीर एक कवि थे, लेकिन उनके मुख्य काम बच्चों को शिक्षा देना था। चूँकि वह एक शिक्षक थे, इसलिए उन्होंने हमेशा अपने प्रवेश के माध्यम से समाज को ऐसा कुछ देने का काम किया जो प्रेम, शिक्षक, भाईचारे और संस्कृति को जिंदा रख पाता और लोगों ने उसी सम्मान के साथ उनके लेखन और कहे को सुना और धारण किया। किया. लेखन के अलावा उनके अधिकांश समय बच्चों को बोल्ट में विस्फोट हुआ था, जो उनकी जीविका का साधन भी था। उनके प्रशंसक की कमी नहीं, शायरी के क्षेत्र में उनकी प्रेरणा लेने वाले शिष्यों की संख्या बहुत अधिक थी।
नज़ीर ने अपने वोट की वजह से हिंदू और मुस्लिम, सभी धर्मों के लोगों में एक समान रूप से लोकप्रिय थे। कहा जाता है, जब वह ग्रामीण से थे तो लोग उन्हें रोक कर कविता सुनने का आग्रह करते थे और नज़ीर ख़ुशी-ख़ुशी कविता भी सुनाते थे। और तो और, फेरी लगाकर अपनी मालकिन की कविताएं लिखवा कर ले जाते थे और गली-कूचों में गा-गा कर अपनी मालकिन बनाते थे। ‘आगरे की ककड़ी’ रचना का जन्म भी देखा गया था।
धार्मिक भेदभाव से वह विशेषण कोसन दूर थे, लेकिन वह रूमानी और स्वतंत्र प्रकृति के कवि थे। उन्होंने कभी किसी राजा, नवाब या रईस की प्रशंसा में एक पंक्ति भी नहीं लिखी, जो कुछ भी आम जनता के लिए लिखा। उन्हें न तो किसी चीज़ का लालच था और न ही वह किसी की चापलूसी करना पसंद करते थे। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने उनका माल-समान भी नहीं लिया और लोगों को प्रकाश का संदेश दिया।
नज़ीर अकबराबादी ने दिवाली पर भी कविता लिखी और ईद पर भी। पिछले कई प्राचीनों से लेकर ब्रज-क्षेत्र और आगरा के कुछ लोग अब भी बसंत-पंचमी के मौक़े पर ताजगंज की मलको गली में नज़ीर के यादगार के साथ-साथ श्रद्धा भाव से उनकी नज़्मों को चित्रित और प्रस्तुत करते हैं।
वैज्ञानिक है, कि नजीराबादी के संग्रहालय में उनका कोई काव्य-संग्रह नहीं छपा, जिसका सबसे बड़ा कारण है- वह रहे अकबर नज्में कहते थे, उनका संग्रह नहीं करते थे। उनका सारा काव्य स्फुट रूप में है, उनके मॉडल को उनके प्रशंसक संजोकर ने रखा है। यह सच है कि नज़ीर ने बहुत कुछ लिखा है, लेकिन उनकी नागरिकता की निश्चित संख्या कोई नहीं बता सकता। क्योंकि उन्होंने अपनी पुस्तक को जमा नहीं किया और अपनी कविताओं को साधारण और घटिया समझकर लंबे समय तक उपेक्षित रखा, जिससे कोई सुरक्षित संग्रह तैयार नहीं हो सका। जो कुछ भी हाथ लगा, उनके शिष्यों, मित्रों और प्रशंसकों के पास उनके स्वामित्व का कारण बन गया।
प्रस्तुत है ‘कुल्लियात-ए-नज़ीर अकबराबादी’ किताब से वह खूबसूरत नज़्म जिसे नज़ीर साहब ने कहा ‘राखी’ लिखा था, इस किताब का प्रकाशन काम ‘मुंशी नवल किशोर’ साल 1922 में हुआ था।
नज़ीर अकबराबादी की राखी पर कविता
चली आती है अब तो हर जगह बाज़ार की राखियाँ
सुनहरी सब्ज़ रेशम जर्द और गुलनार की राखी
बनी है गो कि नादिर खूब हर सरदार की राखी
सैलून में अजब रंगीन है उस दिलदार की राखी
ना संबंध एक गुल को यार जिसे गुलज़ार की राखी
अयां है अब तो राखी भी चमन भी गुल भी शबनम भी
झमक जाता है मोती और चमक जाता है रेशम भी
तमाशा है अहा हा-हा गनीमत है ये आलम भी
उठे हुए हाथ प्रिय वाह-वा टुक देख लें हम भी
तार मोतियों की और ज़री के तार की राखी
मची है हर तरफ क्या सैलून की बहार अब तो
हर इक गुल-रू फिरे है राखी बांधे हाथ में खुश हो
हवस जो दिल में गेरे है कहूँ क्या हूँ मैं तुम को
ये अब तो है जी में बन के बाम्हन, आज तो यारो
मैं अपने हाथ से दोस्त के बांधूं प्यार की राखी
हुई है ज़ेब-ओ-ज़ीनत और खुबाँ को तो राखी से
व-लेकिन तुम से ऐ जां और कुछ राखी के गुल फूले
दिवानी मॉलं होन देख गुल स्टॉकहोम स्टॉकहोम
नकली हाथ ने टैग ने अंगुश्तों ने नाखुन ने
गुलिस्ताँ की चमन की बाग़ की गुलज़ार की राखी
अदा से हाथ जोड़ते हैं गुल-ए-राखी जो हिलाते हैं
कलेजे देखने वाले दर्शक क्या-क्या चिल्लाते हैं
नाज़ुक ये क्षेत्र कहां हैं और कहां ये रंग मिलते हैं
चमन में शख़्स पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं
जो कुछ खूबी है उस शौक-ए-गुल-रुखसार की
फिर हैं राखियां बांधे जो हर दम हुस्न के तारे
तो उन की राखियों को देखो ऐ जान चाव के मारे
परिधान ज़ुन्नार और क़िश्का लगा मोती ऊपर के बारे में
‘नज़ीर’ आया है बाम्हन बन के राखी बांधने प्रिये
बंधा लो उस से तुम हंस कर अब इस त्योहार की राखी
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पहले प्रकाशित : 31 अगस्त, 2023, 16:50 IST
